भारत में न्यायिक समीक्षा का विकास और महत्व

परिचय: न्यायिक समीक्षा भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह न्यायपालिका को कानूनों और सरकारी कार्यों की संवैधानिकता की जांच करने का अधिकार देता है। इस लेख में हम भारत में न्यायिक समीक्षा के विकास, इसके महत्व और वर्तमान चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

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न्यायिक समीक्षा का ऐतिहासिक विकास

भारत में न्यायिक समीक्षा की अवधारणा का विकास ब्रिटिश शासनकाल में ही शुरू हो गया था। 1858 में भारत सरकार अधिनियम के तहत प्रांतीय उच्च न्यायालयों को स्थापित किया गया, जिन्हें कुछ सीमित न्यायिक समीक्षा की शक्तियां प्रदान की गईं। हालांकि, यह शक्ति काफी सीमित थी और केवल प्रशासनिक कार्यों तक ही सीमित थी। स्वतंत्रता के बाद, संविधान सभा ने न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत को व्यापक रूप से स्वीकार किया और इसे संविधान का एक अभिन्न अंग बनाया।

संवैधानिक प्रावधान और महत्वपूर्ण मामले

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13, 32, 131-136, 143, 226 और 246 न्यायिक समीक्षा के लिए कानूनी आधार प्रदान करते हैं। इन प्रावधानों के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को किसी भी कानून या सरकारी कार्रवाई की संवैधानिकता की जांच करने का अधिकार है। कई महत्वपूर्ण मामलों जैसे गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967), केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973), और मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) ने न्यायिक समीक्षा के दायरे और सीमाओं को परिभाषित किया है।

न्यायिक समीक्षा का महत्व और प्रभाव

न्यायिक समीक्षा भारतीय लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण और नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सरकार की मनमानी कार्रवाइयों पर अंकुश लगाता है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। न्यायिक समीक्षा ने कई महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में भी मदद की है, जैसे जमींदारी प्रथा का उन्मूलन और समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम।

वर्तमान चुनौतियां और विवाद

हालांकि न्यायिक समीक्षा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है, फिर भी इसे लेकर कुछ चुनौतियां और विवाद भी हैं। कुछ आलोचक मानते हैं कि न्यायपालिका कभी-कभी अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करती है और न्यायिक सक्रियता में लिप्त हो जाती है। इसके अलावा, न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया और न्यायाधीशों की जवाबदेही को लेकर भी सवाल उठाए जाते हैं। न्यायिक समीक्षा और संसदीय संप्रभुता के बीच संतुलन बनाए रखना भी एक बड़ी चुनौती है।

भविष्य की दिशा और सुधार की संभावनाएं

न्यायिक समीक्षा की प्रणाली को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कई सुधारों की आवश्यकता है। न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता बढ़ाने, न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करने और न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही, न्यायपालिका और विधायिका के बीच बेहतर संवाद और सहयोग की आवश्यकता है ताकि दोनों संस्थाओं के बीच टकराव कम हो सके। न्यायिक समीक्षा के दायरे और सीमाओं को और स्पष्ट करने की भी जरूरत है ताकि इसका दुरुपयोग न हो सके।

निष्कर्षतः, न्यायिक समीक्षा भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है जो संविधान की सर्वोच्चता और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करता है। हालांकि इसके सामने कुछ चुनौतियां हैं, लेकिन उचित सुधारों और संतुलन के साथ यह भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहेगा। न्यायिक समीक्षा की शक्ति का समझदारी से उपयोग करते हुए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के साथ सामंजस्य बनाए रखे और देश के समग्र विकास में योगदान दे।